Chanakya Biography (चाणक्य जीवन परिचय)
चाणक्य जीवन परिचय :-
- उपनाम :- चाणक्य और भारतीय मेकियावली |
- पत्नी :- ज्ञात नहीं |
- पिता - ऋषि कनक |
- माता - चनेश्वरी |
- माता - चनेश्वरी |
- गृहनगर :- तक्षशिला
- धर्म :- हिन्दू
- जाति :- द्रविण ब्राह्मण
- जन्मतिथि :- 375 ई.
- जन्मस्थान :- तक्षशिला (वर्तमान जिला रावलपिंडी, पाकिस्तान) गोला क्षेत्र में गांव चणक (वर्तमान में उड़ीसा - जैन पाठ्यक्रम के अनुसार) |
- मृत्यु तिथि :- 275 ई. (आयु 75 वर्ष)
- मृत्यु स्थल :- पाटलिपुत्र (वर्तमान में पटना) |
- व्यवसाय :- शिक्षक, दार्शनिक, अर्थशास्त्री, कूटनीतिज्ञ और चन्द्रगुप्त मौर्य के महामंत्री |
- शास्त्रीय राजनीति शास्त्र और अर्थशास्त्र के जनक |
- कॉलेज/महाविद्यालय/विश्वविद्यालय :- तक्षशिला या टैक्सिला विश्वविद्यालय, प्राचीन भारत (वर्तमान में रावलपिंडी, पाकिस्तान) |
- शैक्षणिक योग्यता :- समाजशास्त्र, राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र आदि में अध्ययन |
- शौक/अभिरुचि :- पुस्तकें पढ़ना, लेखन करना, भाषण देना |
- चाणक्य (अनुमानतः ईसापूर्व 376 - ईसापूर्व 283) चन्द्रगुप्त मौर्य के महामंत्री थे। वे 'कौटिल्य' नाम से भी विख्यात हैं।
- वे तक्षशिला विश्वविद्यालय के आचार्य थे, उन्होंने मुख्यत: भील और किरात राजकुमारों को प्रशिक्षण दिया।
- उन्होंने नंदवंश का नाश करके चन्द्रगुप्त मौर्य को राजा बनाया था।
- उनके द्वारा रचित अर्थशास्त्र नामक ग्रन्थ राजनीति, अर्थनीति, कृषि, समाजनीति आदि का महान ग्रंन्थ है।
- बुद्धघोष की बनाई हुई विनयपिटक की टीका तथा महानाम स्थविर रचित महावंश की टीका में चाणक्य का वृत्तांत मिलता है।
कौटिल्य ने समाज को कर्म के आधार पर चार वर्गो में बंटा है-
1.ब्राह्मण
2.श्रत्रिय
3.वैश्य
4.शुद्र
चाणक्य की राज्य की अवधारणा
- राज्य की उत्पत्ति के सन्दर्भ में कौटिल्य ने स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा परंतु कुछ टिप्पणियों से स्पष्ट होता है कि वह राज्य के दैवी सिद्धांत के स्थान पर सामाजिक समझौते का पक्षधर था।
- हॉब्स, लॉक तथा रूसो की तरह राज्य की उत्पत्ति से पूर्व की प्राकृतिक दशा को चाणक्य ने अराजकता की संज्ञा दी।
- राज्य की उत्पत्ति तब हुई जब 'मत्स्य न्याय' कानून से तंग आकर लोगों ने मनु को अपना राजा चुना तथा अपनी कृषि उपज का छठा भाग तथा स्वर्ण का दसवा भाग उसे देना स्वीकार किया था। इसके बदले में राजा ने उनकी सुरक्षा तथा कल्याण का उत्तरदायित्व सम्भाला था।
* कौटिल्य राजतंत्र का पक्षधर है।
सप्तांग सिद्धांत : राज्य के तत्व
- कौटिल्य ने पाश्चात्य राजनीतिक चिन्तकों द्वारा प्रतिपादित राज्य के चार आवश्यक तत्त्वों - भूमि, जनसंख्या, सरकार व सम्प्रभुता का विवरण न देकर राज्य के सात तत्त्वों का विवेचन किया है।
- कौटिल्य ने राज्य की तुलना मानव-शरीर से की है तथा उसके सावयव रूप को स्वीकार किया है। राज्य के सभी तत्त्व मानव शरीर के अंगो के समान परस्पर सम्बन्धित, अन्तनिर्भर तथा मिल-जुलकर कार्य करते हैं -
(1) स्वामी (राजा) :- शीर्ष के तुल्य है। वह कुलीन, बुद्धिमान, साहसी, धैर्यवान, संयमी, दूरदर्शी तथा युद्ध-कला में निपुण होना चाहिए।
(2) अमात्य (मंत्री) :- राज्य की आँखे हैं। इस शब्द का प्रयोग कौटिल्य ने मंत्रीगण, सचिव, प्रशासनिक व न्यायिक पदाधिकारियों के लिए भी किया है।
(3) जनपद (भूमि तथा प्रजा या जनसंख्या) :- राज्य की जंघाएँ अथवा पैर हैं, जिन पर राज्य का अस्तित्व टिका है।
- कौटिल्य ने उपजाऊ, प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण, पशुधन, नदियों, तालाबों तथा वन्यप्रदेश प्रधान भूमि को उपयुक्त बताया है।
- जनसंख्या में कृषकों, उद्यमियों तथा आर्थिक उत्पादन में योगदान देने वाली प्रजा सम्मिलित है। प्रजा को स्वामिभक्त, परिश्रमी तथा राजा की आज्ञा का पालन करने वाला होना चाहिए।
(4) दुर्ग (किला) :- राज्य की बाहें हैं, जिनका कार्य राज्य की रक्षा करना है।
(5) कोष (राजकोष) :- राजा के मुख के समान है।
(6) दण्ड (बल, डण्डा या सेना) :- राज्य का मस्तिष्क हैं। प्रजा तथा शत्रु पर नियंत्रण करने के लिए बल अथवा सेना अत्यधिक आवश्यक तत्त्व है।
(7) सुहृद (मित्र) :- राज्य के कान हैं। राजा के मित्र शान्ति व युद्धकाल दोनों में ही उसकी सहायता करते हैं।
- कौटिल्य ने चार प्रकार के दुर्गों का वर्णन किया है :-
1. औदिक (जल) दुर्ग,
2. पर्वत (पहाड़ी) दुर्ग,
3.वनदुर्ग (जंगली) तथा
4. धन्वन (मरुस्थलीय) दुर्ग
कौटिल्य ने सेना के छः प्रकार बताए हैं :-
1. वंशानुगत सेना,
2. वेतन पर नियुक्त या किराए के सैनिक,
3. सैन्य निगमों के सैनिक,
4. मित्र राज्य के सैनिक,
5. शत्रु राज्य के सैनिक तथा
6. आदिवासी सैनिक।
* संकटकाल में वैश्य तथा शूद्रों को भी सेना में भर्ती किया जा सकता है।
- सैनिकों को धैर्यवान, दक्ष, युद्ध-कुशल तथा राष्ट्रभक्त होना चाहिए।
- राजा को भी सैनिकों की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखना चाहिए।
कौटिल्य ने दण्डनीति के चार लक्ष्य बताए हैं-
1. अप्राप्य वस्तु को प्राप्त करना,
2. प्राप्त वस्तु की रक्षा करना,
3. रक्षित वस्तु का संवर्धन करना तथा
4. संवख्रधत वस्तु को उचित पात्रों में बाँटना।
मण्डल सिद्धांत
- कौटिल्य ने अपने मण्डल सिद्धांत में विभिन्न राज्यों द्वारा दूसरे राज्यों के प्रति अपनाई नीति का वर्णन किया है। कौटिल्य के अनुसार युद्ध व विजय द्वारा अपने साम्राज्य का विस्तार करने वाले राजा को अपने शत्रुओं की अपेक्षाकृत मित्रों की संख्या बढ़ानी चाहिए, ताकि शत्रुओं पर नियंत्रण रखा जा सके। दूसरी ओर निर्बल राज्यों को शक्तिशाली पड़ोसी राज्यों से सतर्क रहना चाहिए। उन्हें समान स्तर वाले राज्यों के साथ मिलकर शक्तिशाली राज्यों की विस्तार-नीति से बचने हेतु एक गुट या ‘मंडल’ बनाना चाहिए। कौटिल्य ने 4 मंडलों का उल्लेख किया है-
1. प्रथम मंडल :- इसमें स्वयं विजिगीषु, उसका मित्र, उसके मित्र का मित्र शामिल है।
2. द्वितीय मंडल :- इस मंडल में विजिगीषु का शत्रु शामिल होता है, साथ ही विजिगीषु के शत्रु का मित्र और शत्रु के मित्र का मित्र सम्मिलित किया जाता है।
3. तृतीय मंडल :- इस मंडल में मध्यम, उसका मित्र एवं उसके मित्र का मित्र को शामिल किया जाता है।
4. चतुर्थ मंडल :- इस मंडल में उदासीन, उसका मित्र और उसके मित्र का मित्र शामिल किया जाता है।
विजिगीषु :- ऐसा राजा जो विजय का इच्छुक है और अपने राज्य में उत्तम शासन स्थापित करना चाहता है।
अरि :- ऐसा राजा जिसका राज्य विजिगीषु की सीमा के साथ लगा हो अर्थात वह विजिगीषु का स्वाभाविक शत्रु है।
मध्यम :- ऐसा राजा जिसका राज्य विजिगीषु और उसके शत्रु दोनों की सीमाओं से लगा हो। अतः वह इनमे से किसी का भी शत्रु या मित्र हो सकता है।
उदासीन :- ऐसा राजा जिसके राज्य की स्थिति विजिगीषु के शत्रु और मध्यम दोनों से परे हो परन्तु वह इतना बलशाली हो की वह संकट के समय किसी की भी सहायता या विरोध करने में समर्थ हो। इसलिए उसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती है।
पार्षिंग्राह :- ऐसा राजा जिसका राज्य विजिगीषु के राज्य के पीछे की ओर सीमा से लगा हो। अतः वह युद्ध के समय पीछे से उपद्रव खड़ा कर सकता है। वह स्वाभाविक रूप से विजिगीषु का शत्रु होता है।
आक्रन्द :- ऐसा राजा जिसका राज्य पार्षिंग्राह की राज्य की सीमा के साथ लगा हो अतः वह पार्षिंग्राह का स्वाभाविक शत्रु होता है और विजिगीषु का स्वाभाविक मित्र होता है।
पार्षिंग्राहासागर :- ऐसा राजा जिसका राज्य आक्रन्द की सीमा के साथ लगा हो अतः वह आक्रन्द का शत्रु होता है पार्शिनग्राह का परोक्ष मित्र होता है और विजिगीषु का परोक्ष शत्रु होता है।
आक्रंदासार :- ऐसा राजा जिसका राज्य पार्षिंग्राहासागर के राज्य के सीमा के साथ लगा हो, अतः वह पार्षिंग्राहासागर का स्वाभाविक शत्रु होता है; आक्रन्द का और विजिगीषु का परोक्ष मित्र होता है।
विदेश नीति
- कौटिल्य ने विदेश सम्बन्धों के संचालन हेतु छः प्रकार की नीतियों का विवरण किया है-
(1) संधि :- शान्ति बनाए रखने हेतु समतुल्य या अधिक शक्तिशाली राजा के साथ संधि की जा सकती है। आत्मरक्षा की दृष्टि से शत्रु से भी संधि की जा सकती है। किन्तु इसका लक्ष्य शत्रु को कालान्तर निर्बल बनाना है।
(2) विग्रह :- शत्रु के विरुद्ध युद्ध का निर्माण।
(3) यान :- युद्ध घोषित किए बिना आक्रमण की तैयारी,
(4) आसन :- तटस्थता की नीति,
(5) संश्रय :- आत्मरक्षा की दृष्टि से राजा द्वारा अन्य राजा की शरण में जाना,
(6) द्वैधीभाव :- एक राजा से शान्ति की संधि करके अन्य के साथ युद्ध करने की नीति।
- कौटिल्य के अनुसार राजा द्वारा इन नीतियों का प्रयोग राज्य के कल्याण की दृष्टि से ही किया जाना चाहिए।
कूटनीति आचरण के चार सिद्धांत :-
कौटिल्य ने राज्य की विदेश नीति के सन्दर्भ में कूटनीति के चार सिद्धांतों का वर्णन किया है :-
1. साम (समझाना, बुझाना),
2. दाम (धन देकर सन्तुष्ट करना),
3. दण्ड (बलप्रयोग, युद्ध) तथा
4. भेद (फूट डालना) का वर्णन किया।
- कौटिल्य के अनुसार प्रथम दो सिद्धांतों का प्रयोग निर्बल राजाओं द्वारा तथा अंतिम दो सिद्धांतों का प्रयोग सबल राजाओं द्वारा किया जाना चाहिए, किन्तु उसका यह भी मत है कि साम दाम से, दाम भेद से और भेद दण्ड से श्रेयस्कर होता है।
- दण्ड (युद्ध) का प्रयोग अन्तिम उपाय के रूप में किया जाए, क्योंकि इससे स्वयं की भी क्षति होती है।
गुप्तचर
- कौटिल्य ने गुप्तचरों के प्रकारों व कार्यों का वर्णन किया है।
- गुप्तचर विद्यार्थी गृहपति, तपस्वी, व्यापारी तथा विष -कन्याओं के रूप में हो सकते थे।
- राजदूत भी गुप्तचर का कार्य करते थे। इनका कार्य देश-विदेश की गुप्त सूचनाएँ राजा तक पहुँचाना होता था। ये जनमत की स्थिति का आंकलन करने, विद्रोहियों पर नियंत्रण रखने तथा शत्रु राज्य को नष्ट करने में योगदान देते थे।
No comments:
Post a Comment